परमाणु तकनीकी के आपूर्तिकर्ता देशों के प्रतिष्ठित समूह एनएसजी यानी न्यूक्लियर सप्लायर्स ग्रुप की सदस्यता हासिल करने के लिए भारत ने अपनी कूटनीतिक के हर दांव की आजमाइश शुरू कर दी है। 11 मई, 2016 को भारत ने एनएसजी की सदस्यता हासिल करने के लिए औपचारिक तौर पर आवेदन किया , वही वर्षो से लंबित बैलिस्टिक मिसाइलों की तकनीकी के हस्तांतरण से जुड़े हेग समझौते में शामिल होने की सहमति दे कर भी भारत ने अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश की है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की शनिवार से शुरू हो रही पांच देशों की यात्र के केंद्र में भी एनएसजी की सदस्यता हासिल करना ही रहेगा। अमेरिका, स्विट्जरलैंड और मैक्सिको में मोदी इस मुद्दे को जोरशोर से उठाएंगे। विदेश सचिव एस. जयशंकर ने बताया कि यह बात अब किसी से छिपी नहीं है कि भारत एनएसजी का सदस्य बनना चाहता है। भारत का परमाणु तकनीकी के मामले में रिकॉर्ड पूरी तरह पाक साफ है। भारत ने स्वछ ऊर्जा को तेजी से प्रोत्साहित करने की नीति लागू की है। हम 2030 तक अपनी कुल ऊर्जा क्षमता का 40 फीसद स्वछ स्नोतों से पैदा करेंगे। इसका 40 फीसद हिस्सा परमाणु ऊर्जा का होगा। इसे संभव बनाने के लिए हमें परमाणु ऊर्जा से जुड़ी तकनीकी चाहिए। एनएसजी का सदस्य बनने के बाद इसे हासिल करना आसान हो जाएगा। गौरतलब है कि भारत परमाणु ऊर्जा का निर्यात भी शुरू कर चुका है। पिछले वर्ष कई देशों से इस बारे में समझौते भी हुए। ऐसे में भारत एनएसजी का सदस्य बनने का गंभीर दावेदार है। भारत के एनएसजी का सदस्य बनने के प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के पांच स्थायी सदस्यों में चीन को छोड़ कर सभी समर्थन करते हैं। राष्ट्रपति ओबामा ने पिछले वर्ष भारत की यात्र के दौरान खुल कर इसका समर्थन किया था। अमेरिकी विदेश मंत्रलय ने दो हफ्ते पहले ही इस समर्थन को दोहराया है लेकिन चीन पाकिस्तान की वजह से इस प्रस्ताव का विरोध कर रहा है। भारत के प्रस्ताव पर इसी महीने वोटिंग के जरिए फैसला होगा। अमेरिका के साथ मोदी के मैक्सिको और स्विट्जरलैंड जाने के पीछे एनएसजी के लिए इन दोनों देशों को मनाना प्रमुख वजह है। ये दोनों देश परमाणु अप्रसार समझौते पर हस्ताक्षर किये बगैर किसी भी देश को एनएसजी में शामिल करने के सख्त खिलाफ हैं। जानकारों की मानें तो अगर अमेरिका की तरफ से दूसरे देशों पर दबाव नहीं बनाया गया तो भारत के लिए सदस्य बनने में अनेक बाधाएं आएंगी। चूंकि एनएसजी का सदस्य बनने के बाद अमेरिका के लिए भारत के साथ परमाणु ऊर्जा समझौता करना और उसकी कंपनियों के लिए यहां निवेश करना काफी आसान हो जाएगा, इसलिए माना जा रहा है कि अमेरिका की तरफ से पहल हो सकती है।
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