अरुणाचल प्रदेश की राजनीति में राज्यपाल की भूमिका पर बेहद तीखी टिप्पणी करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि गवर्नर का प्रदेश की राजनीति से कोई लेना नहीं है। संविधान में राज्यपाल के अधिकार तय हैं। राज्यपाल को संविधान की मर्यादा का ध्यान रखना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ने संवैधानिक मर्यादाओं को लांघा। उत्तर-पूर्व के छोटे से राज्य अरुणाचल प्रदेश की निर्वाचित सरकार को बर्खास्त करने के मसले पर संविधान पीठ का फैसला राज्यपाल के अधिकारों के बारे में मील का पत्थर साबित होगा। जस्टिस जगदीश सिंह केहर की अध्यक्षता वाली संविधान पीठ ने कहा कि प्रदेश की राजनीति में आए दिन होने वाली उठा-पटक से गवर्नर का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए। किस पार्टी के विधायक कहां जा रहे हैं या कौन सा विधायक अपने नेतृत्व को चुनौती दे रहा है, गवर्नर को रोजमर्रा की इन चीजों से अलग रहना चाहिए। किस राजनीतिक दल का नेता कौन होगा, कौन बदला जाएगा, इन सब बातों से राज्यपाल को दूर रहने की सलाह संविधान देता है। राजनीतिक दलों की आपसी लड़ाई में कूदने का काम गवर्नर का नहीं है। हो सकता है कि संविधान के दायरे में रहते हुए गवर्नर राष्ट्रपति को सूचना देते रहे। लेकिन खुद राजनीति में कूदना नैतिक रूप से और संवैधानिक तौर पर गलत है। सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत दल-बदल कानून का जिक्र किया। संविधान पीठ ने कहा कि दो तिहाई विधायकों के अलग होने पर ही उसे मान्यता दी जा सकती है। 60 सदस्यों की विधान सभा में कांग्रेस के 47 विधायक निर्वाचित हुए थे। इनमें से 21 ने कांग्रेस से नाता तोड़ लिया। यह संख्या कानूनी रूप से उन्हें अलग गुट की मान्यता प्रदान करने के लिए पर्याप्त नहीं है। अवैध गुट के समर्थन में संवैधानिक रास्ता अख्तियार नहीं किया जा सकता। अगर राज्यपाल को लगता था कि नबाम तुकी सरकार विधान सभा में बहुमत खो चुकी है तो गवर्नर का संवैधानिक दायित्व था कि उसे विधान सभा के पटल पर बहुमत साबित करने के लिए कहा जाता। यह संवैधानिक स्थिति है और सुप्रीम कोर्ट बोम्मई केस में फ्लोर टेस्ट की महत्ता की स्पष्ट शब्दों में व्याख्या कर चुकी है। अवैध रूप से अलग हुए गुट को लेकर राज्यपाल की कार्रवाई को संवैधानिक रूप से मंजूरी नहीं दी जा सकती। संविधान के अनुच्छेद 179 के तहत स्पीकर को हटाने में राज्यपाल को दखल का अधिकार नहीं है। विधान सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को हटाने का काम विधायकों का है। अगर विधान सभा में उन्हें हटाने का प्रस्ताव पारित होता है तो सदन को इसे अंगीकार करना होता है। अगर प्रस्ताव पारित नहीं होता तो स्पीकर अपने पद पर बना रहेगा। अगर राज्यपाल इन सब बातों में दखल देता है तो उसके हर कदम को संदेह की नजर से देखा जाएगा। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधान सभा की कार्यवाही का एजेंडा तय करना राज्यपाल के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता। फिर भी राज्यपाल ज्योति प्रसाद ने विधान सभा सत्र का एजेंडा तय किया। अनुच्छेद 356 के तहत संवैधानिक ढांचे पर चोट पहुंचने का मामला बिलकुल अलग है। लेकिन दल बदल कानून का समस्त दायरा विधान सभा में निहित है। इसके लिए संविधान अंतिम उपाय है। जैसा कि 14 विधायकों ने अपनाया और सदस्यता समाप्त करने के आदेश को गुवाहाटी हाई कोर्ट में चुनौती दी और स्थगनादेश हासिल किया।
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