अफगानिस्तान को लेकर भारतीय कूटनीति का असर दिखाई देने लगा है। चार वर्ष पहले अमेरिका के अफगानिस्तान से सेना वापस बुलाने के एलान पर तालिबान के फिर हावी होने और पाकिस्तान की पुरानी हरकतें शुरू होने की आशंकाएं अब खत्म हो चुकी हैं। अफगानी राष्ट्रपति अशरफ घानी की हिचक भी टूट चुकी है और उन्होंने बता दिया है कि शांति के लिए उन्हें भारत पर ही दांव लगाना होगा। हाल ही में अफगान सरकार और हिब-ए-इस्लामी के मुखिया गुलुबुद्दीन हिकमतयार के बीच हुए समझौते को भी भारतीय पक्ष में ही देखा जा रहा है। हिकमतयार को भारत का समर्थन हासिल है और इनके अफगान की राजनीति में सक्रिय होने से तालिबान को हाशिये पर रखने में मदद मिलेगी। इस समझौते को अमेरिका का भी समर्थन हासिल है। भारतीय विदेश मंत्रलय के प्रवक्ता विकास स्वरूप ने अफगानिस्तान के एक बड़े हिस्से में कभी काफी सक्रिय रहे हिकमतयार के साथ हुए समझौते का स्वागत करते हुए कहा, ‘हम ऐसी हर पहल का स्वागत करते हैं जो अफगान की जनता व वहां के नेतृत्व ने शुरू किया हो। यह समझौता वहां शांति व स्थायित्व बहाली में बड़ी मदद करेगा। इससे वहां सक्रिय अन्य समूह भी सबक सीखेंगे और शांति स्थापित करने के लिए अफगान सरकार की प्रक्रिया में हिस्सा बनेंगे।’ बताते चलें कि अमेरिकी सरकार ने भी कुछ इसी तरह की प्रक्रिया जताई है। अमेरिका व भारत की लगातार कोशिश है कि तालिबान को हाशिये पर रख कर वहां के अन्य समूहों को शांति प्रक्रिया में शामिल किया जाए। सूत्रों के मुताबिक भारत पिछले एक दशक से यादा समय से अफगानिस्तान के लिए एक समान नीति अपनाये हुए है। इस नीति के केंद्र में है कि हम चाहते हैं कि अफगान का भविष्य वहां की जनता ही तय करे। दूसरा, भारत अफगानिस्तान को एक आधुनिक लोकतांत्रिक देश के तौर पर उभरने में हरसंभव मदद करता रहेगा। यही वजह है कि भारत से उसे दी जाने वाली आर्थिक व सामाजिक सहायता लगातार बढ़ाई जा रही है। ईरान के चाबहार पोर्ट से अफगान के भीतरी शहर तक सड़क व रेल मार्ग बनाने का पिछले सोमवार को किया गया समझौता भारत की इसी रणनीति का हिस्सा है। भारत ने जिस तरह से अफगान में पुलिस, सेना, सिविल सर्विसेज को प्रशिक्षण व सामाजिक विकास की योजनाओं में मदद दी है उसका भी असर दिख रहा है। हाल के महीनों में भारतीय दूतावासों पर हुए हमले को वहां की स्थानीय पुलिस व सेना ने ही विफल किया है। यह सब तब हुआ जब पाकिस्तान की तरफ से अफगान शांति वार्ता से भारत को दूर रखने की हरसंभव कोशिश की जा रही है। दूसरी तरफ इस हफ्ते तालिबान के मुखिया मुल्ला मंसूरी की अमेरिकी हमले में हुई मौत से साफ हो गया है कि पाकिस्तान अपनी पुरानी हरकतों से बाज नहीं आया है। उसकी खुफिया एजेंसी अभी भी वहां तालिबानी आतंकियों की अगुवाई में अशांति फैलाने में जुटी है। तालिबान का एक बड़ा धड़ा सीधे तौर पर पाकिस्तानी एजेंसियों से निर्देश पा रहा है। ऐसे में हिकमतयार के अफगान राजनीति में सक्रिय होने से अन्य समूहों के लिए भी शांति वार्ता में शामिल होने का रास्ता साफ होगा।
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