1.पांच राज्यों के चुनावी नतीजों का विश्लेषण :- पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से कई हैरतअंगेज नतीजे निकले हैं। इस जनादेश के लिहाज से भाजपा जहां पहली बार सचे अर्थों में अखिल भारतीय पार्टी बन गई , वहीं कांग्रेस अपना अखिल भारतीय दर्जा खोने के करीब खड़ी हो गई है। देश के चुनावी इतिहास में पहली बार उत्तरपूर्व के असम में भाजपा का भगवा लहराया है। ये परिणाम भाजपा को दिल्ली व बिहार से मिली हार की हताशा को भूलने का सबब बनेंगे। वहीं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कार्यकाल की मध्यावधि में बचे आर्थिक एजेंडे को दृढ़तापूर्वक लागू करने का मनोबल भी जनता ने दे दिया है। पचास साल के खूनी राजनीतिक संघर्ष के बाद कांग्रेस ने वाममोर्चे के साथ पश्चिम बंगाल में जो गलबहियां डाली थीं वह दोनों के गले में कस गई है और ममता एक बार फिर दमदार बहुमत के साथ सत्ता में वापस आ गई हैं। केरल का राजनीतिक मिजाज पुराना ही है,कभी एलडीएफ तो कभी यूडीएफ लेकिन इस बार भाजपा ने अपनी सांगठनिक ताकत प्रदेश में बढ़ाई है और खाता भी खुल गया। तमिलनाडु में अम्मा ने पहली बार प्रदेश के राजनीतिक इतिहास को बदला है। अम्मा की ममता का हाथ तमिलनाडु में फिर जनता के सिर पर होगा। केंद्र शासित राज्य पुडुचेरी में कांग्रेस जीत से थोड़ा संतोष कर सकती है।
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम केंद्र की राजनीति में भी थोड़ा असर डालेंगे। जयललिता का तमिलनाडु में फिर सत्तारूढ़ होना तथा पश्चिम बंगाल में ममता की वापसी भाजपा के लिए जीएसटी के मद्देनजर मुस्कुराने का सबब बन सकती है। ममता पहले ही वायदा कर चुकी हैं कि वह अब राज्यों का विकास न रोकते हुए जीएसटी का समर्थन करेंगी और जयललिता का जीएसटी पर ढुलमुल रवैया केवल चुनावी नजरिए से ही था। इधर असम तो जीएसटी के लिए भाजपा की झोली में आ ही गिरा है। यानी फिलहाल राज्य सभा में भाजपा के लिए भले ही अंकगणित न बदला हो लेकिन ममता और जयललिता से वह मदद की उम्मीदें संजो सकती है। इस चुनाव का दूसरा राजनीतिक निहितार्थ यह है कि कांग्रेस ने अपने दो राज्यों की सत्ता गंवा दी है। अब कर्नाटक को छोड़ दें तो वह देश में केवल पर्वतीय परिधि के छोटे राज्यों वाली पार्टी बनकर रह गई है। राष्ट्रीय स्तर पर इस जनादेश से होने वाले बुनियादी बदलाव से मोदी का वही नारा चरितार्थ होता दिख रहा है जिसमें उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी। अब कांग्रेस के लिए जीवन मरण का प्रश्न है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह क्षेत्रीय दल बन नहीं सकती क्योंकि उसके आलाकमान राज्यों में जाकर बैठ नहीं सकते। राष्ट्रीय पार्टी की जमीन उसके पैरों से लगातार खिसकती जा रही है। यह समझना होगा कि कांग्रेस आलाकमान के अतिथि कलाकार बनने, रोड शो करने, हाथ हिलाने और लिखित भाषण पढ़ने से अब काम नहीं चलने वाला। सोनिया गांधी को भी समझना होगा कि पर्दे के पीछे की राजनीति अब जनता स्वीकारने वाली नहीं है। पहली बार भाजपा ने पूर्वोत्तर के द्वार असम से अपना भगवा फहराना शुरू किया है। अब तक कांग्रेस या वाममोर्चे के शासन के लिए अभिशप्त पूर्वोत्तर को असम में भाजपा के रूप में नया विकल्प मिल गया है। यह बात पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी फैलेगी।
‘असम का आनंद सर्वानंद’-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह नारा असम में फलीभूत हुआ है। साथ ही असम के कांग्रेस नेताओं में बढ़ता असंतोष और दिल्ली में उसकी अनसुनी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी है। इधर पश्चिम बंगाल में पांच दशकों के राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर कांग्रेस ने वाममोर्चे के साथ चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया था। लेकिन यह वाममोर्चे को भारी पड़ा। उसने ममता के हाथ अपनी जमीन खोने के बाद बची खुची जमीन कांग्रेस के हाथों खो दी। बंगाल में नारदा व शारदा का कोई असर नहीं हुआ, न ही सारधा घोटाले में शामिल पार्टी के लगभग आधा दर्जन मंत्रियों और लगभग इतने ही सांसदों पर भ्रष्टाचार की खरोंचों से कोई असर पड़ा। ममता की मर्दानगी इन सभी सत्य आरोपों पर भारी पड़ी।
सभी चुनावी सर्वे, राजनीतिक विश्लेषकों को धता बताकर जयललिता तमिलनाडु में एक बार फिर धमाकेदार शासन चलाएंगी। तमिलनाडु में राजनीतिक इतिहास रहा है कि कभी जयललिता और कभी करुणानिधि ही अदल-बदल कर शासन करते रहे हैं। जयललिता ने पहली बार तमिलनाडु के राजनीतिक रसायन को बदला है।
दूसरी तरफ केरल में वापसी कर वाममोर्चा भले ही खुश हो ले, लेकिन पश्चिम बंगाल में उसकी उखड़ती जड़ें उसे चैन की नींद नहीं लेने देंगी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस राय में भाजपा न पनपने पाए, इसके लिए यूडीएफ और एलडीएफ दोनों ही तमाम सीटों पर अपने-अपने वोट एक दूसरे को ट्रांसफर भी कराते रहे हैं। उनकी यह राजनीतिक चाल धीरे-धीरे इस राय में कुंद पड़ती जा रही है।
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से भाजपा को खुश होने के साथ ही कुछ सबक लेने की भी जरूरत है। पहली बात तो उसे असम की खुशी में संयम नहीं खोना चाहिए। दूसरी बात, असम में नेतृत्व घोषित किए जाने से यह सबक भी लेना चाहिए कि दिल्ली और बिहार जैसे अपने लिए ऊर्जावान राज्यों में भाजपा बुरी तरह पराजित इसलिए हुई क्योंकि जनता के सामने कोई विश्वसनीय चेहरा वह पेश नहीं कर पाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नायब संगठन अध्यक्ष अमित शाह को इन परिणामों ने जहां एक तरफ खुश होने का मौका दिया है वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के चुनाव से निपटने की चुनौती भी बढ़ा दी है। ध्यान रहे कि यहां पर कांग्रेस नहीं है,यहां सपा और बसपा जैसे दो मजबूत दल हैं जिनका अपना कमिटिड वोट बैंक भी है। इसके बावजूद भाजपा के 73 सांसद यहीं से चुनाव जीते थे। अगले साल होने वाले चुनाव में भाजपा क्या करिश्मा करेगी यह अब भविष्य बताएगा।
पांच राज्यों के चुनाव परिणाम केंद्र की राजनीति में भी थोड़ा असर डालेंगे। जयललिता का तमिलनाडु में फिर सत्तारूढ़ होना तथा पश्चिम बंगाल में ममता की वापसी भाजपा के लिए जीएसटी के मद्देनजर मुस्कुराने का सबब बन सकती है। ममता पहले ही वायदा कर चुकी हैं कि वह अब राज्यों का विकास न रोकते हुए जीएसटी का समर्थन करेंगी और जयललिता का जीएसटी पर ढुलमुल रवैया केवल चुनावी नजरिए से ही था। इधर असम तो जीएसटी के लिए भाजपा की झोली में आ ही गिरा है। यानी फिलहाल राज्य सभा में भाजपा के लिए भले ही अंकगणित न बदला हो लेकिन ममता और जयललिता से वह मदद की उम्मीदें संजो सकती है। इस चुनाव का दूसरा राजनीतिक निहितार्थ यह है कि कांग्रेस ने अपने दो राज्यों की सत्ता गंवा दी है। अब कर्नाटक को छोड़ दें तो वह देश में केवल पर्वतीय परिधि के छोटे राज्यों वाली पार्टी बनकर रह गई है। राष्ट्रीय स्तर पर इस जनादेश से होने वाले बुनियादी बदलाव से मोदी का वही नारा चरितार्थ होता दिख रहा है जिसमें उन्होंने कांग्रेस मुक्त भारत की बात कही थी। अब कांग्रेस के लिए जीवन मरण का प्रश्न है। सबसे बड़ी विडंबना यह है कि वह क्षेत्रीय दल बन नहीं सकती क्योंकि उसके आलाकमान राज्यों में जाकर बैठ नहीं सकते। राष्ट्रीय पार्टी की जमीन उसके पैरों से लगातार खिसकती जा रही है। यह समझना होगा कि कांग्रेस आलाकमान के अतिथि कलाकार बनने, रोड शो करने, हाथ हिलाने और लिखित भाषण पढ़ने से अब काम नहीं चलने वाला। सोनिया गांधी को भी समझना होगा कि पर्दे के पीछे की राजनीति अब जनता स्वीकारने वाली नहीं है। पहली बार भाजपा ने पूर्वोत्तर के द्वार असम से अपना भगवा फहराना शुरू किया है। अब तक कांग्रेस या वाममोर्चे के शासन के लिए अभिशप्त पूर्वोत्तर को असम में भाजपा के रूप में नया विकल्प मिल गया है। यह बात पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में भी फैलेगी।
‘असम का आनंद सर्वानंद’-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का यह नारा असम में फलीभूत हुआ है। साथ ही असम के कांग्रेस नेताओं में बढ़ता असंतोष और दिल्ली में उसकी अनसुनी कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी है। इधर पश्चिम बंगाल में पांच दशकों के राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर कांग्रेस ने वाममोर्चे के साथ चुनाव मैदान में उतरने का फैसला किया था। लेकिन यह वाममोर्चे को भारी पड़ा। उसने ममता के हाथ अपनी जमीन खोने के बाद बची खुची जमीन कांग्रेस के हाथों खो दी। बंगाल में नारदा व शारदा का कोई असर नहीं हुआ, न ही सारधा घोटाले में शामिल पार्टी के लगभग आधा दर्जन मंत्रियों और लगभग इतने ही सांसदों पर भ्रष्टाचार की खरोंचों से कोई असर पड़ा। ममता की मर्दानगी इन सभी सत्य आरोपों पर भारी पड़ी।
सभी चुनावी सर्वे, राजनीतिक विश्लेषकों को धता बताकर जयललिता तमिलनाडु में एक बार फिर धमाकेदार शासन चलाएंगी। तमिलनाडु में राजनीतिक इतिहास रहा है कि कभी जयललिता और कभी करुणानिधि ही अदल-बदल कर शासन करते रहे हैं। जयललिता ने पहली बार तमिलनाडु के राजनीतिक रसायन को बदला है।
दूसरी तरफ केरल में वापसी कर वाममोर्चा भले ही खुश हो ले, लेकिन पश्चिम बंगाल में उसकी उखड़ती जड़ें उसे चैन की नींद नहीं लेने देंगी। दिलचस्प तथ्य यह भी है कि इस राय में भाजपा न पनपने पाए, इसके लिए यूडीएफ और एलडीएफ दोनों ही तमाम सीटों पर अपने-अपने वोट एक दूसरे को ट्रांसफर भी कराते रहे हैं। उनकी यह राजनीतिक चाल धीरे-धीरे इस राय में कुंद पड़ती जा रही है।
पांच राज्यों के चुनाव परिणामों से भाजपा को खुश होने के साथ ही कुछ सबक लेने की भी जरूरत है। पहली बात तो उसे असम की खुशी में संयम नहीं खोना चाहिए। दूसरी बात, असम में नेतृत्व घोषित किए जाने से यह सबक भी लेना चाहिए कि दिल्ली और बिहार जैसे अपने लिए ऊर्जावान राज्यों में भाजपा बुरी तरह पराजित इसलिए हुई क्योंकि जनता के सामने कोई विश्वसनीय चेहरा वह पेश नहीं कर पाई। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनके नायब संगठन अध्यक्ष अमित शाह को इन परिणामों ने जहां एक तरफ खुश होने का मौका दिया है वहीं दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश के चुनाव से निपटने की चुनौती भी बढ़ा दी है। ध्यान रहे कि यहां पर कांग्रेस नहीं है,यहां सपा और बसपा जैसे दो मजबूत दल हैं जिनका अपना कमिटिड वोट बैंक भी है। इसके बावजूद भाजपा के 73 सांसद यहीं से चुनाव जीते थे। अगले साल होने वाले चुनाव में भाजपा क्या करिश्मा करेगी यह अब भविष्य बताएगा।
2. भारत की वृद्धि दर 7.5 फीसद रहेगी : मूडीज:- भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर चालू और अगले वित्त वर्ष में 7.5 फीसद रहेगी। मूडीज इन्वेस्टर्स सर्विस ने बृहस्पतिवार को कहा कि यह वृद्धि मुख्य तौर पर बढ़ती खपत प्रेरित होगी। एजेंसी ने कहा है कि गतिविधि बरकरार रखने के लिए निजी निवेश में सतत सुधार की जरूरत होगी।मूडीज ने कहा कि 2015-16 में भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर 7.3 फीसद रही और निजी निवेश कमजोर रहा। मूडीज ने नियंतण्र वृहत परिदृश्य, 2016-17 रपट में कहा, ‘‘भारत को जिंसों के शुद्ध आयातक के तौर पर कीमत में गिरावट से फायदा हुआ और वृद्धि बढ़ती खपत से प्रेरित होगी। हालांकि, वृद्धि बरकरार रखने के लिए घरेलू निजी निवेश में सतत सुधार की जरूरत होगी।’रपट में कहा गया कि 2016 और 2017 में वृद्धि थोड़ी बढ़कर 7.5 फीसद होगी जो 2015 में 7.3 फीसद थी। मूडीज ने कहा कि वस्तु व्यापार में अपेक्षाकृत हल्की भागीदारी और शुद्ध जिंस आयातक देश होने के कारण भारत की अर्थव्यवस्था वाह्य मुश्किलों से बचती रही है।
3. नेट न्यूट्रलिटी के दायरे में फ्री इंटरनेट पर विचार:- टेलीकॉम रेगुलेटर ट्राई ने नेट न्यूट्रलिटी व्यवस्था के दायरे में उपभोक्ताओं को फ्री इंटरनेट सेवा देने के लिए मॉडल तलाशने का प्रस्ताव किया है। फेसबुक के फ्री बेसिक्स और एयरटेल जीरो ऑफर्स को चार्ज में भेदभाव के आधार पर रोकने के कुछ महीनों बाद ट्राई ने यह पेशकश की है। इसके लिए रेगुलेटर ने कंसल्टेशन पेपर जारी करते हुए कहा कि ऐसा मॉडल तलाशने के लिए यह पेपर जारी किया जा रहा है जिससे फ्री डाटा के ऐसे मॉडल तैयार हों जिसमें चार्ज के भेदभाव संबंधी नियमों का उल्लंघन न हो। भेदभावपूर्ण प्लानों पर इसी वजह से रोक लगाई गई थी। ट्राई की इस प्रक्रिया ने ऐसे आवेदनों और प्लेटफॉर्म के लिए रास्ता खोल दिया है जो उपभोक्ताओं की पसंद वाली साइट्स व कंटेंट पर कोई निगरानी किए बगैर फ्री डाटा सर्विस देना चाहते हैं।सेव दि इंटरनेट के कार्यकर्ता निखिल पाहवा ने कहा कि यह कंसल्टेशन पेपर देखकर थोड़ा आश्चर्य हुआ है। इसमें सिर्फ फ्री डाटा सर्विस की बात कही गई है। लगता है कि यह पिछले कंसल्टेशन का ही हिस्सा है। हालांकि इससे फ्री डाटा ऑफर्स को लेकर स्पष्टता अवश्य आएगी।
4. 22 जुलाई तक वेटलैंड्स की पहचान कर लें राय : एनजीटी:- नेशनल ग्रीन टिब्यूनल (एनजीटी) ने सभी राय सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने न्याय क्षेत्र के कम से कम पांच से दस जिलों में वेटलैंड्स की पहचान कर अधिसूचित करने का निर्देश दिया है। टिब्यूनल ने इसके लिए मामले की अगली सुनवाई की तारीख यानि 22 जुलाई तक का समय दिया है। बता दें कि वेटलैंड ऐसे जमीनी क्षेत्र को कहते हैं जो स्थायी रूप से या मौसम के मुताबिक पानी से परिपूर्ण होता है और जिसका अपना विशिष्ठ परिस्थितिकीय तंत्र होता है। देशभर में ऐसे क्षेत्र लगातार खत्म होते जा रहे हैं। जस्टिस स्वतंत्र कुमार की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा कि वेटलैंड्स की पहचान के लिए छोटे राय कम जिले (उदाहरण के तौर पर पांच) और उत्तर प्रदेश जैसे बड़े राय यादा जिलों का चुनाव कर सकते हैं। टिब्यूनल ने यह आदेश पर्यावरणविद् आनंद आर्य और पुष्प सैनी की याचिका पर सुनवाई करते हुए दिया। याचिका के मुताबिक, ‘द वेटलैंड्स (कंजरवेशन एंड मैनेजमेंट) रूल्स 2010’ को इंवायरमेंट प्रोटेक्शन एक्ट-1986 के तहत पारित किया गया था। इनके मुताबिक, दो साल के भीतर सरकार को रायों के सहयोग से देशभर के सभी वेटलैंड्स की पहचान कर उन्हें अधिसूचित करना अनिवार्य था। लेकिन यह काम अभी तक नहीं किया जा सका है।
5. चीन को परिवार नियोजन की नीति का पालन करना होगा : शी:- चीन इस वर्ष अपनी विवादास्पद तीन दशक पुरानी एक बच्चे की नीति को संशोधित कर इसकी जगह दो बच्चे की नीति ला सकता है लेकिन राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा है कि आबादी, संसाधनों और पर्यावरण के बीच के ‘‘तनाव’ में बदलाव नहीं होने वाला है इसलिए बच्चे के जन्म पर प्रतिबंध जारी रहेगा। शी ने बुधवार को यहां परिवार नियोजन एसोसिएशन की एक बैठक को एक लिखित निर्देश में कहा, चीन को लंबे समय के लिए परिवार नियोजन की आधारभूत नीति का पालन करना होगा।कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ चाइना (सीपीसी) के महासचिव शी ने कहा, आबादी का मुद्दा हमेशा एक समग्र, दीर्घकालिक, रणनीतिक मुद्दा रहा है जिसका हमारा देश सामना कर रहा है। भविष्य में काफी लंबे समय के लिए चीन की एक बड़ी आबादी के बुनियादी राष्ट्रीय हालात में मौलिक परिवर्तन नहीं होगा। आर्थिक और सामाजिक विकास पर आबादी के दबाव में कोई मौलिक परिवर्तन नहीं होगा। उन्होंने कहा, आबादी और संधाधनों और पर्यावरण के बीच के तनाव में मौलिक परिवर्तन नहीं होगा।एक बच्चे की नीति का बचाव करते हुए शी ने कहा, पिछले कुछ वर्षो में परिवार नियोजन एसोसिएशन के अत्यधिक प्रयासों ने परिवार नियोजन के समायोजन को सही ढंग से समझने में लोगों का मार्गदर्शन किया है और प्रासंगिक सेवाएं प्रदान की है। एक जनवरी से चीन ने सभी विवाहित दंपतियों को दो बच्चों को जन्म देने की अनुमति दी थी। इस वर्ष इस नवीनतम परिवर्तन ने ‘‘एक बच्चे’ की उस नीति को खत्म कर दिया था जिसे बढ़ती आबादी के कारण चीन ने 1970 में लागू किया था।
6. बंधुआ मजदूरों के पुनर्वास के लिए मिलेगा ज्यादा धन:- यौन शोषण से मुक्त महिलाओं को अब मिलेंगे तीन लाख रपएकिन्नरों के पुनर्वास के लिए भी अब मिलेंगे तीन लाख रपएवयस्क पुरु ष बंधुआ मजूदरों के लिए एक लाख रपए का पैकेजअल्प वयस्कों की विशेष श्रेणी में मिलेंगे दो लाख रपएयह रकम जिलाधीश के जरिये लाभार्थी के खाते में जाएगीबंधुआ मजदूरों के सव्रेक्षण के लिए 4.5 लाख रपए का कोषइसके अलावा दस लाख रपए का स्थायी कोष बनाया जाएगा श्रम मंत्रालय द्वारा सरकारी योजना में किए गए बदलाव के मद्देनजर अब विशेष रूप से यौनकर्मी और अल्पवयस्क समेत सभी मुक्त किए गए बंधुआ मजदूरों को पुनर्वास के लिए अधिकतम तीन लाख रपए मिलेंगे।श्रम मंत्रालय ने मंगलवार को कई पहलों की घोषणा की जिनमें मुक्त बंधुआ मजदूरों के लिए वित्तीय सहायता पैकेज में बढ़ोतरी और जबरन वेश्यावृत्ति, संगठित भिक्षावृत्ति, बाल श्रम आदि कराने पर रोक लगाने के लिए सख्त पहल शामिल हैं।श्रम मंत्री बंडारू दत्तात्रेय ने बताया, ‘‘हमने मुक्त किए गए बंधुआ मजदूरों की पुनर्वास योजना में बदलाव अधिसूचित किया है और इस संबंध में सभी संबद्ध अधिकारियों को निर्देश दिया है।’ योजना में बदलाव के मुताबिक विशेष रूप से सक्षम व्यक्तियों, मानव तस्करी एवं यौन शोषण से मुक्त कराई गईं महिलाओं तथा बच्चों और किन्नरों के लिए वित्तीय सहायता 20,000 रपए से बढ़ाकर तीन लाख रपए कर दी गई।महिलाओं और अल्पवयस्कों की विशेष श्रेणी में दो लाख रपए प्रति व्यक्ति और सामान्य वयस्क पुरु ष बंधुआ मजदूर को एक लाख रपए मिलेंगे। पुनर्वास की यह राशि जिलाधीश द्वारा नियंत्रित वार्षिक वृत्ति खाते में जाएगी और हर महीने लाभार्थी के खाते में मासिक आय डाली जाएगी। खाते में आने वाले कोष पर फैसला जिलाधीश लेगा।नए मानदंडों में संवेदनशील जिलों में बंधुआ मजदूरों के सव्रेक्षण के लिए 4.5 लाख रपए की सहायता दी जाएगी। मंत्रालय जिला स्तर पर 10 लाख रपए का एक स्थायी और नवीकरणीय कोष बनाया जाएगा। इसका इस्तेमाल केंद्र द्वारा प्रत्यक्ष अंतरण पण्राली द्वारा वितरण से पहले कामचलाऊ प्रबंध के तौर पर किया जाएगा।
7. कामागाटा मारू मामले में कनाडा ने 102 साल बाद माफी मांगी :- कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन त्रुदो ने बुधवार को (भारतीय समयानुसार गुरुवार) 102 साल पुरानी 'कामागाटा मारू' घटना के लिए संसद में माफी मांगी है। कामागाटा मारू नामक जहाज 1914 में 376 भारतीय अप्रवासियों को लेकर कनाडा के वेंकूवर तट पर पहुंचा था। लेकिन कनाडा ने उन्हें वहां उतरने नहीं दिया था। जहाज को 23 मई 1914 को लौटा दिया गया था। इन अप्रवासियों में इसमें 340 सिख, 24 मुसलमान, 12 हिंदू थे और सभी ब्रिटिश प्रजा थे। प्रधानमंत्री त्रुदो ने हाउस ऑफ कॉमन्स में 10 मिनट के भाषण में कहा, 'आज मैं कनाडा सरकार की ओर से कामागाटा मारू घटना पर माफी मांगता हूं। एक शताब्दी से भी पहले यह महाअन्याय हुआ था। कोई दो राय नहीं कि इसके लिए कनाडा सरकार इन यात्रियों को शांतिपूर्वक और सुरक्षित उतारने से रोकने वाले कानूनों के लिए जिम्मेदार थी। उस खेदजनक घटना और उसके कारण बाद में हुई घटनाओं के लिए हमें अफसोस है।' त्रुदो ने कहा, 'उस समय कानून का पूरी तरह पालन किया गया था। उसके मुताबिक भारत से आने वाले किसी इमिग्रेंट को उतरने नहीं दिया जा सकता था। क्योंकि भारत-कनाडा के बीच सीधी समुद्री जहाज सेवा नहीं थी।' त्रुदो ने पिछले साल चुनाव प्रचार के दौरान इस घटना के लिए सिखों से माफी मांगी थी। संसद में उनके द्वारा माफी मांगने के बाद सदन तालियों और जो बोले सो नेहाल' के नारों से गूंजने लगा। उसके बाद विपक्ष के सदस्यों ने भी 102 साल पुरानी घटना के लिए माफी मांगी। वेंकूवर बंदरगाह पर जहाज दो महीने तक दुविधा में खड़ा रहा। कुल 376 में से केवल 24 यात्रियों को उतरने दिया गया। शेष 352 यात्रियों सहित जहाज को 23 मई 1914 को कनाडा की सेना ने बंदरगाह से दूर समुद्र तक ले जाकर छोड़ा। यह 27 सितंबर को कलकत्ता लौटा। जहां ब्रिटिश सैनिकों ने इन्हे कानून तोड़ने वाला और ब्रिटिश सरकार का खतरनाक राजनीतिक विरोधी मानकर गिरफ्तार कर लिया। यात्रियों ने गिरफ्तारी का विरोध किया तो उनपर फायरिंग की गई। इसमें 19 लोग मारे गए।
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